“चिशो दाइशी”
814 ईo में कागावा प्रान्त (वर्तमान) के ज़ेन्त्सुजी शहर में जन्म हुआ। पिता वाके घराने से और माँ कुकाई की भतीजी थीं। 15 वर्ष की आयु में हिएई पर्वत पर चले गए और वहां गिशिन(778~833) के शिष्य बनें। 40 वर्ष की आयु में 853 ईo में तांग (चीन) चले गए, जहाँ उन्होंने तेंदाई पर्वत और चांग-अन पर तेंदाई ज्ञान और गूढ़ बौद्ध धर्म की शिक्षा ली और बाद में ये ज्ञान जापान में फैलाया। तांग (चीन) से लेकर लौटे धार्मिक सामग्री मीइदेरा के तोइन कक्ष में संरक्षित किया, और खुद मंदिर के प्रथम मुख्य संचालक का पद संभाला, और मीइदेरा मंदिर को तेंदाई संप्रदाय का मंदिर बनाया। एक ऐसी बुनियाद डाली के बाद में इसे जिमोन शाखा के मुख्य मंदिर के तौर पर तरक्की मिली। उन्हें 868 ईo में तेंदाई संप्रदाय के 5वें मुख्य पुजारी के तौर पर नियुक्त किया गया और उसके बाद 23 साल से भी ज्यादह समय उन्होंने बौध धर्म की समृद्धि के लीये समर्पित कर दिया। 29अक्टूबर 891 ईo में उनका देहांत हुआ।
“मकबरे”
मकबरे (जगह जहां पूर्वजों की आत्माओं की पूजा की जाती है) के लिए एक सम्मानसूचक शब्द।
“सम्राट सेइवा”
सम्राट सेइवा (850–880) प्रारंभिक हेइआन काल के सम्राट थे। वह सम्राट मोंतोकू के चौथे राजकुमार थे। उनकी माँ का नाम फुजिवारा नो आकिराकेईको (फुजिवारा नो मेईशी) था। उनका नाम कोरेहितो था और उन्हें मिजुनोओनो मिकादो के नाम से भी जाना जाता है। उनके कम उम्री की वजह से उनके नाना ने सेष्शो (वह सेनापति जो कमउम्र सम्राट, या महारानी के स्थान पर कार्य भार संभालता हो ) की उपाद्धि दी। उन्होंने एक समर्पित बौध का जीवन गुज़ारा और 879 ईo में अपना बाल मुंडवा लिया। मरणोपरांत सोशिन के नाम से जाने गाएँ।
“देन्पो कान्जो”
जब कोई गूढ़ बौध धर्म के ज्ञान पर महारत हासिल कर लेता और आचार्य की उपाधि प्राप्त करता तो उस समय की जाने वाली एक महत्वपूर्ण धार्मिक क्रिया। इसकी शुरुआत प्राचीन भारत में राजा या राजकुमार के राज्याभिषेक के समय आयोजित की जाने वाली पद्धति से हुई है, जिसमे उनका जलाभिषेक किया जाता था।
“तोयोतोमी हिदेयोशी”
आजुचिमोमोयामा काल का एक सेनापति। शुरू में वह ओदा नोबुनागा की सेवा में रहा , पर जब 1582 ईo में होन्नोजी हादसे में ओदा नोबुनागा की मृत्यु हो गई तो उसने शीघ्र ही खुद को उसका उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और शत्रुओं को हराकर राज्य को संयुक्त किया। उसने 1583 ईo में ओसाका महल का निर्माण शुरू किया जिसे 5 मंजिले (बाहर से) और 8 मंजिले (अंदर से) मीनारों से सुसज्जित किया गया, जो इस महान सेनापति को शोभनीय थी। होताइको के नाम से मशहूर भव्य मोमोयामा संस्कृति जिसका प्रतिनिधित्व चा-नो-यू और कानो स्कूल के चित्र करते हैं, इसी काल में विकसित हुए।
मीइदेरा मंदिर के साथ उसके सम्बंध लगभग अच्छे थे, परन्तु अपने आखिरी वर्षों 1595 ईo में अचानक उसने मीइदेरा मंदिर की सारी सम्पति को ज़ब्त करने का आदेश जारी किया। अगस्त1598 ईo में उसके मरणोप्रांत, उसकी पत्नी किता नो मांदोकोरो के द्वारा मीइदेरा मंदिर को पुनः बहाल किया गया।
“संपत्ति जब्ती”
(केश्शो का मतलब है ऐसी ज़मीन जिसका कोई मालिक नहीं हो।) कामाकुरा और मुरोमाची काल में किसी के अपराध के कारण शोगून द्वारा उसकी ज़मीन ज़ब्त कर ली जाती थी। ऐसी ज़मीन जिसका कोई मालिक नहीं होता था। ज़मीन के अलावा दूसरी सम्पति भी ज़ब्त कर ली जाती थी।
“होग्यो ज़ुकूरी”
छत का एक प्रकार। एक वर्गाकार भवन, जिसमे हर कोने से छत ऊपर उठते हुए भवन के केंद्र में जाकर मिलती है। इसे तम्बुनुमा छत भी कहते हैं।
“सरु की छाल की छत”
सरू की छाल को छीलकर उसमे बांस की कील ठोकने की प्रक्रिया से बनाई गई छत।
“किफुदो की खड़ी हुई मूर्ति”
जापान के तिन महा अचल में से एक। इसे पिला फुदो-म्यो-ओ भी कहते हैं। चिशो दाइशी (814–891) जो मिइदेरा मंदिर के संस्थापक थे उन्होंने हीए पर्वत पर अभ्यास के दौरान एक अचल की उपस्थिति महसूस की ,और उन्होंने उसे चित्रित कर लिया। असल चित्र में किसी एक फुदो-म्यो-ओ (अचल) को चित्राया गया है। यह सबसे पुराना बौध चित्र होने के कारण इसे रास्ट्रीय धरोहर के रूप में नामांकित किया गया है। वह चित्र और उसके आधार पर कामाकुरा काल में बनाइ गई प्रतिमाएं दोनों शायद ही कभी लोगो को देखने को मिलती हैं। किफुदो ने चिशो दाइशी की पूरी ज़िन्दगी रक्षा की, और उसके चमत्कारिक प्रभाव के कारण अलग-अलग सम्प्रदायों में इसकी पूजा होती है। इसी वजह से मिइदेरा मंदिर फुदो-म्यो-ओ में विशवास रखने वाले मंदिरों के केंद्र के तौर पर गिना जाने लगा।