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मीइदेरा मंदिर के संस्थापक चिशो दाइशी के मकबरे के रूप में मीइदेरा मंदिर में तोइन सबसे स्वच्छ और पवित्र स्थान है।
यह कहा जाता है कि "तोइन" नाम उन ग्रंथों और कर्मकाण्डों से आता है जिसे चिशो दाइशी ने तांग चीन से लाया था जिसे जापानी भाषा में "तो " उच्चारण किया जाता है। इस जगह को सम्राट सेइवा ने चिशो दाइशी द्वारा लाए गए शास्त्रों और शिल्पकृतियों को संग्रहीत करने के लिए शाही महल के जीजुदेन इमारत में प्रदान किया था । इसके अलावा, आधिकारिक तौर पर मास्टर भिक्षुओं के लिए देन्पो कान्जो के प्रशिक्षण देने का केंद्र भी है।
वर्तमान कान्जोदो हॉल का पुनर्निर्माण दाइशीदो के लिए पूजा हॉल के रूप में और देन्पो कान्जो के प्रशिक्षण के लिए केइचो युग (1596-1615) में किया गया था। यह एक इरिमोया-ज़ुकूरी, सरु की छाल की छत, और सामने के केंद्र में नोकीकाराहाफु से बना गया है, जिससे हेइआन् काल (794–1185) के उत्तम आवासीय शैली की वास्तुकला का पता चलता है।

“चिशो दाइशी”

चिशो दाइशी

814 ईo में कागावा प्रान्त (वर्तमान) के ज़ेन्त्सुजी शहर में जन्म हुआ। पिता वाके घराने से और माँ कुकाई की भतीजी थीं। 15 वर्ष की आयु में हिएई पर्वत पर चले गए और वहां गिशिन(778~833) के शिष्य बनें। 40 वर्ष की आयु में 853 ईo में तांग (चीन) चले गए, जहाँ उन्होंने तेंदाई पर्वत और चांग-अन पर तेंदाई ज्ञान और गूढ़ बौद्ध धर्म की शिक्षा ली और बाद में ये ज्ञान जापान में फैलाया। तांग (चीन) से लेकर लौटे धार्मिक सामग्री मीइदेरा के तोइन कक्ष में संरक्षित किया, और खुद मंदिर के प्रथम मुख्य संचालक का पद संभाला, और मीइदेरा मंदिर को तेंदाई संप्रदाय का मंदिर बनाया। एक ऐसी बुनियाद डाली के बाद में इसे जिमोन शाखा के मुख्य मंदिर के तौर पर तरक्की मिली। उन्हें 868 ईo में तेंदाई संप्रदाय के 5वें मुख्य पुजारी के तौर पर नियुक्त किया गया और उसके बाद 23 साल से भी ज्यादह समय उन्होंने बौध धर्म की समृद्धि के लीये समर्पित कर दिया। 29अक्टूबर 891 ईo में उनका देहांत हुआ।

“मकबरे”

मकबरे (जगह जहां पूर्वजों की आत्माओं की पूजा की जाती है) के लिए एक सम्मानसूचक शब्द।

“सम्राट सेइवा”

सम्राट सेइवा (850–880) प्रारंभिक हेइआन काल के सम्राट थे। वह सम्राट मोंतोकू के चौथे राजकुमार थे। उनकी माँ का नाम फुजिवारा नो आकिराकेईको (फुजिवारा नो मेईशी) था। उनका नाम कोरेहितो था और उन्हें मिजुनोओनो मिकादो के नाम से भी जाना जाता है। उनके कम उम्री की वजह से उनके नाना ने सेष्शो (वह सेनापति जो कमउम्र सम्राट, या महारानी के स्थान पर कार्य भार संभालता हो ) की उपाद्धि दी। उन्होंने एक समर्पित बौध का जीवन गुज़ारा और 879 ईo में अपना बाल मुंडवा लिया। मरणोपरांत सोशिन के नाम से जाने गाएँ।

“देन्पो कान्जो”

जब कोई गूढ़ बौध धर्म के ज्ञान पर महारत हासिल कर लेता और आचार्य की उपाधि प्राप्त करता तो उस समय की जाने वाली एक महत्वपूर्ण धार्मिक क्रिया। इसकी शुरुआत प्राचीन भारत में राजा या राजकुमार के राज्याभिषेक के समय आयोजित की जाने वाली पद्धति से हुई है, जिसमे उनका जलाभिषेक किया जाता था।

“पूजा हॉल”

मंदीर आदि के मुख्य पवित्र स्थल (होंदेन) के सामने पूजा करने का पूजन-स्थल।

“इरिमोया-ज़ुकूरी”

इरिमोया-ज़ुकूरी

केंद्र में एक त्रिअंकी छप्पर और चारो तरफ निचले हिस्से में पुट्ठेदार ढलावदार छप्पर को जोड़ कर बनायी गयी एक छत।

“सरु की छाल की छत”

सरु की छाल की छत

सरू की छाल को छीलकर उसमे बांस की कील ठोकने की प्रक्रिया से बनाई गई छत।

“नोकीकाराहाफु”

नोकीकाराहाफु

एक कराहाफु जो ओलती के किनारों पर छत को खूबसूरत बनाने के लीये जोड़ा जाता है। यह प्रायः ईमारत के सामने के प्रवेश द्वार पर बनाया जाता है।

“हेइआन काल”

हेइआन काल 794 ईo में सम्राट कान्मु द्वारा राजधानी के स्थानांतरण से लेकर 1185 ईo में कामाकुरा शोगून व्यवस्था की स्थापना तक लगभग 400 वर्षों तक की अवधी को कहते हैं, जिसमे शासन का केंद्र हेइआनक्यो (क्योतो) था। इस काल को आमतौर पर तिन खण्डों में बांटते हैं: प्रारंभिक, मध्य और उत्तरार्ध हेइआन काल। दुसरे शब्दों में रित्सुरयो कोड के आधार पर राजनितिक व्यवस्था का पुनरुद्धार की अवधी, प्रतिशासनकाल और इन्सेइ (सेवानिवृत्त सम्राट द्वारा शासन) काल (उत्तरार्ध हेइआन काल ताइरा वंश का शासन रहा) भी कहते है। हेइआन राजवंश।

मोमोयामा काल