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यह इमारत अक्टूबर 2014ईo में मीइदेरा मंदिर के संस्थापक चिशो दाइशी के 1200वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में खोली गई।
मोमोयामा चित्रों की सबसे बड़ी कृतियां में से एक के तौर पर जाने जनि वाली कानो मित्सुनोबु कृत कांगाकुइन अतिथिगृह की दिवार की चित्रकारी के साथ ग्यारह शकल वाले कान्नोन की खड़ी हुई मूर्ति, कारीतेइमो की बैठी हुई मूर्ति, किश्शोतेन (संस्कृत में महादेवी) की खड़ी हुई मूर्ति, चिशो दाइशी की बैठी हुई मूर्ति इत्यादि महत्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहरों की चित्रकारी और बौद्ध प्रतिमाएं, तथा कई महत्वपूर्ण सांस्कृतिक चीज़ों को संरक्षित और प्रदर्शित किया गया है।
मीइदेरा मंदिर जीवंत संस्कृति को सुरक्षित रखने और बाद वाली नस्लों को इसके बारे में बताने के साथ इसका 1300 वर्षों का इतिहास मीइदेरा मंदिर की संस्कृति और इतिहास से लोगों को परिचित कराने के लिए इस सांस्कृतिक धरोहर भंडार का निर्माण किया गया था।

“चिशो दाइशी”

चिशो दाइशी

814 ईo में कागावा प्रान्त (वर्तमान) के ज़ेन्त्सुजी शहर में जन्म हुआ। पिता वाके घराने से और माँ कुकाई की भतीजी थीं। 15 वर्ष की आयु में हिएई पर्वत पर चले गए और वहां गिशिन(778~833) के शिष्य बनें। 40 वर्ष की आयु में 853 ईo में तांग (चीन) चले गए, जहाँ उन्होंने तेंदाई पर्वत और चांग-अन पर तेंदाई ज्ञान और गूढ़ बौद्ध धर्म की शिक्षा ली और बाद में ये ज्ञान जापान में फैलाया। तांग (चीन) से लेकर लौटे धार्मिक सामग्री मीइदेरा के तोइन कक्ष में संरक्षित किया, और खुद मंदिर के प्रथम मुख्य संचालक का पद संभाला, और मीइदेरा मंदिर को तेंदाई संप्रदाय का मंदिर बनाया। एक ऐसी बुनियाद डाली के बाद में इसे जिमोन शाखा के मुख्य मंदिर के तौर पर तरक्की मिली। उन्हें 868 ईo में तेंदाई संप्रदाय के 5वें मुख्य पुजारी के तौर पर नियुक्त किया गया और उसके बाद 23 साल से भी ज्यादह समय उन्होंने बौध धर्म की समृद्धि के लीये समर्पित कर दिया। 29अक्टूबर 891 ईo में उनका देहांत हुआ।

“मोमोयामा”

युगों के वर्गीकरण में से एक। 16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के लगभग 20 वर्ष जिनमे सत्ता तोयोतोमी हिदेयोशी के हाथ में थी। कला के इतिहास में मोमोयामा काल से लेकर प्रारम्भिक एदो काल का समय, जो मध्यकाल से आधुनिक काल की ओर के परिवर्तन का समय है, इसे बहुत महत्वपूर्ण समय माना जाता है। विशेष रूप से, शानदार महल, इमारतें, मंदिर आदि का निर्माण और भवन के अन्दुरुनी भाग को सजाने वाले सजावटी चित्रों का विकास हुआ है। इसके अलावा, लोगों के जीवन को दर्शाता है और शिल्प कौशल की प्रगति जैसे कि मिटटी के बर्तन, लाह के काम, और रंगाई और बुनाई उल्लेखनीय हैं।

“कानो मित्सुनोबु”

कानो मित्सुनोबू (1565–1608) कानो एइतोकू (1543–1590) का बड़ा पुत्र था, जिसने मोमोयामा काल के चित्रकला का नेतृत्वा किया। ओदा नोबुनागा और तोयोतोमी हिदेयोशी की सेवा के दौरान उसने अपने पिता एइतोकू के साथ मिलकर बहुत सी महत्वपूर्ण कृतियों की रचना की, पर अधिकतर ख़त्म हो गई हैं। उनमे से मिइदेरा मंदिर के कांगाकू-इन के अतिथि-कक्ष में कि गई चित्रकारी का काम, कानो मित्सुनोबू के कार्य-शैली को समझने के लिए उत्कृष्ट उदाहरण है।

“कांगाकुइन अतिथिगृह की दिवार की चित्रकारी”

कांगाकुइन अतिथिगृह की दिवार की चित्रकारी

इचिनोमा कक्ष में, सोने की परत चढ़ी कैनवास पर चारो मौसमो के पेड़ और फूल चित्रित हैं । उत्तरी ओर के फुसुमा (सरक कर खुलने वाला दरवाज़ा) पर आलूबुखारे और हिनोकी सनौवर के पेड़ो का चित्र बना है । उत्तरी ओर फुसुमा के पूर्वी कोने से पूर्वी फुसुमा तक देवदार और साकुरा (चेरी के फूल) का चित्र बना है। पूर्वी ओर के फुसुमा के दोनों दक्षिणी ओर पानी के किनारे पत्थर की छाया में बुरुंश का फूल, दक्षिणी तरफ माईरादो किवाड़ के चारों तरफ हाइड्रैन्जिया, आइरिस, देवदार और पतझड़ के पत्ते का चित्र बना है जो पश्चिम की ओर झरने और बर्फीले पहाड़ तक फैला है। इसमें हर एक उसके पिता कानो एइतोकू के शैली से भिन्न, कानो मित्सुनोबू के चित्र एक शांत सुन्दर वातावरण को दर्शाते हैं।
नि-नो-मा कक्ष में, 24 फुसुमा दरवाजों पर हर तरफ आधारभूत रंगों से फूलों और पक्षियों के चित्र बनाए गए हैं। उत्तर पश्चिमी कोने के दाएं और बाए तरफ दो देवदार के पेड़ो को केंद्र में रखते हुए विस्टिरीआ से लदे देवदार, यामचो (एक जापानी चिड़िया), बत्तख, मंडारिन बतख इसके अलावा पूर्वी ओर बांस पर गौरैया, पत्थर पर खंजन, दक्षिणी ओर पानी के किनारे ईंख पर बगुला आदि को चित्रित किया गया है , जो अहिस्ता अहिस्ता बदलते हुए मौसमो में पहाड़ो और मैदानों पर प्रकृति की अभिभूत कर लेने वाली ताज़गी को दर्शाते हैं।

“ग्यारह शकल वाले कान्नोन की खड़ी हुई मूर्ति”

ग्यारह शकल वाले कान्नोन की खड़ी हुई मूर्ति

मिइदेरा बेस्सो और बिज़ोजी मंदिर जो की मिइदेरा मंदिर की एक शाखा है के पूर्व मुख्य देवता की तस्वीर। कांनोन के सर से लेकर निचे के कमल आसन तक एक ही सरू की लकड़ी से बनी हुई है। यह एक ऐसी मूर्ति है जो खुशबूदार लकड़ी से बनाई गई है। खुबसूरत उभरे हुए गालो वाला चेहरा और समृद्ध मांसल शरीर एक अद्वितीय व्यक्तित्व को दर्शाता है। इसके अलावा इसकी दूसरी कई विशेषताएं हैं जैसे की शानदार ओपनवर्क सजावट और नाज़ुक नक्काशी वाले परिधान। प्रारंभिक हेइआन काल की यह तेंदाई गूढ़ बौध मूर्ति बहुत ही ज्यादह सम्मानित और कीमती स्थान रखता है।

“कारीतेइमो की बैठी हुई मूर्ति”

कारीतेइमो की बैठी हुई मूर्ति

सरू को इस्तेमाल करके योसेगी ज़ुकुरी तकनीक से बनाई गई इस मूर्ति के दाहिने हाथ में एक अनार और बाएँ हाथ में एक शिशु और चेहरे पर एक ममतामई प्रकाश है। किरिकाने के काम वाला सोंग शैली (चीन) का एक चमकीला वस्त्र धारण किये हुए, वह एक गोल आसन पर बैठी एक पैर दुसरे पैर पर रखे हैं। ममता से भरा भाव और कपड़ो की सिलवटों की सटीक तराश प्रारंभिक कामाकुरा काल की मूर्तिकला की यथार्थवादी अभिव्यक्ति की विशेषताओं को दर्शाता है।

“किश्शोतेन की खड़ी हुई मूर्ति”

किश्शोतेन की खड़ी हुई मूर्ति

खुशि, सौंदर्य और धन की देवी के रूप में इनकी पूजा जापान में नारा काल (710–794) से होती चली आई है। यह सरू को इस्तेमाल करके योसेगी ज़ुकुरी तकनीक से बनाई गई है। बाएँ हाथ में चिन्तामणि (इच्छाओ को पूरा करने वाला मणि) थामे, सोंग शैली (चीन ) का वस्त्र धारण किये और सर के बाल एक कपडे से बंधे हुए , सीधा खड़ा उसका यह रूप किस्मत की देवी के तौर पर उपयुक्त है। एक भद्र महिला की तरह भाव से पूर्ण उसका या चेहरा प्रारंभिक कामाकुरा काल की यथार्थवादी अभिव्यक्ति की विशेषताओं को दर्शाता यह एक गरिमामइ देवी की मूर्ति है।

“चिशो दाइशी की बैठी हुई मूर्ति”

चिशो दाइशी की बैठी हुई मूर्ति

मीइदेरा मंदिर के संस्थापक चिशो दाइशी (814-891) की एक बैठी हुई प्रतिमा जिसे तोइन कक्ष में रखी हुई राष्ट्रीय धरोहर चुसोन दाइशी की बैठी हुई प्रतिमा के आधार पर बनाया गया है। यह मूर्ति सर से लेकर घुटनों तक, और कोर-कोर तक सरू के एक लकड़ी को इस्तेमाल करके उकेरी गई है। सम्पूर्ण प्रतिमा को बहुत खूबसूरती के साथ रंगा गया है, इसका कोमल और करुणापूर्ण भाव लोगो का चिशो दाइशी के प्रति श्रद्धा की गंभीरता को दर्शाता है।